Wednesday, December 12, 2018

हाउ आइ बिकम अ बिबिलिओफ़ाइल




   उपरोक्त चित्र को देख के उभरे भावों  की अभिव्यक्ति है यह लेख....... 


बिबिलिओफ़ाइल इसका मतलब है बूक लवर यानि किताबों से प्यार करने वाला ये वर्ड हमको खूब अच्छा लगता है सुनने में ही मजा आ जाता है एकदम प्लीजिंग वर्ड  है, इसका मीनिंग हमारे इंग्लिश वाले दीपक सर 11वी क्लास में बताये थे तबे से हमको याद है। अपने पास खूब सारा किताब भी जमा के रखे हैं, हाथी के दिखाने वाले दांत टाइप भले ही धूल कभी कभार झाड़ देते हैं, कोई भी जब हमारे पास आता है तो उसको दिखाते हैं अपना किताब ताकि हमको वो बिबिलिओफ़ाइल समझे अऊ सामने वाले पे  अपना भी थोड़ा इंटेलिजेंट टाइप इम्प्रैशन जमे, थोड़ा भाव मिले तब तो मजा आए, का है की जिसका भाव बढ़ा रहता है न, राय शुमारी में उसका अपना अलग स्थान होता है।

अइसे तो 11वी से हमारे विषय से  हिन्दी साहित्य हट गया था जीव विज्ञान अऊ गणित दोनों विषय एक साथ पढ़ने के कारण, लेकिन हर क्लास का हिन्दी अऊ अंग्रेजी दोनों का स्वाती, पराग, निहारिका, बाल भारती, किशोर भारती, स्प्लीमेंटरी रीडर ये सब किताब  का बहुत सारे पाठ का स्टोरी अऊ कविता आज तक याद है, जब बाउंडेसन नही रहता है तो आदमी पढ़ाई को एंजॉय करता है अऊ  नंबर के लिए पढ़ने में आदमी ज्यादा पढ़े न तो पगला जाता है।

हमारी दीदी जब भी कोई साहित्य मेला मे जाती थी न तो दो तीन किताब जरूर उठा के ले आती थी अऊ उसके पढ़ने के बाद सब किताब हमारे पास आता था हरिशंकर पारसाई का किताब तो वो ही ला के दी थी हमको वो इतना मस्त लगा था की अब हम पारसाई जी के  किताबों को बूक स्टाल  में जरूर खोजते हैं अऊ बिना पढ़ा हुआ रहता है तो ले आते हैं। हमारे स्कूल के सीनियर जय भैया के पास भी किताब खूब रहता था कालेज के टाइम पे। जब रायपुर जाते थे उनका किताब हम उठा लाते थे, कभी रिटर्न नही किए, सोजे वतन अऊ जयप्रकाश नारायण की बायोग्राफी उन्ही के पास से लाय थे।

स्कूल के टाइम पे सेल फोन कल्चर नही था न, तो उस समय हास्टल में कोर्स के इत्तर बूक अऊ मेगज़ीन का खूब क्रेज था लड़के लोग कामिक्स, सुमन सौरभ, बाल हंस नन्हें सम्राट ये सब लेके जरूर आते थे, कामिक्स का तो क्रेज अइसा था की उनके हीरो ध्रुव नागराज डोगा ये सबका फोटो लईका लोग के आर्ट कापी में बनाया हुआ जरुरे रहता था अऊ जो लोग ढंग से बना नही पाते थे पुराने पुराने किताब से ब्लेड से काट के चिपका लेते थे। हमारा फ्रेंड विष्णु ये मामले में अजीब अऊ सबसे अलग था ढाई सौ वाला रेडियो कान से लगा के घूमता रहता था किताब भी अलगे टेस्ट का लाता था एक बार तो मेघदूत लेके आया था कालिदास वाला, अब सप्लाइ से ज्यादा जब डिमांड रहे तो आदमी ये सब किताब भी पढ़ लेता है हमको यक्ष का कई गो इन्सट्रकसन जो वो बादल को दिया था न,  अभी तक याद है जइसे... हे बादल जब तुम फलाना जगह से रात के टाइम गुजरोगे तो थोड़ा चमक जाना अऊ जो अभिसारिकाएँ जो अपने प्रियतम से मिलने जाती रहेंगी उनके लिए रोशनी करना...मोहन भी किताब लाता था वो दो तीन गो बाल उपन्यास लाया था उसी में एक में जुड़वा भाई बहन सुप्रभा अऊ सुबीर की कहानी थी उसमे एक एलियन भी आया था दूसरे ग्रह से उसको हरु कहते थे... एगो अरुणाचल के गोम्पा तक जाने का ट्रेवेलिंग स्टोरी था एक बच्चे का..पारस पत्थर (बाल उपन्यास) हमी लेके आए थे हास्टल में, पता नही कहा से मिला था लेकिन मस्त था..उसमे एक उदण्ड लड़के का कहानी था जिसमे उसके मम्मी पापा गुजर गए थे बचपन में अऊ दादा दादी के लाड़ प्यार में वो बिगड़ गया था फिर एक गुरुजी आते हैं अऊ उसको सुधार के एकदम बढ़िया आदमी अऊ पेंटर बना देते हैं...




बचपन में हमारे घर के बगल में डाक घर था तो वहा हमलोग घूमते फिरते घुस जाते थे काहे की एक थे डब्बा था जिसमे वहा के स्टाफ शुकदेव अऊ हरी पईसा रखते थे, उसमे हमारा बराबर नजर रहता था कई बार तो सुखदेव से हम पईसा भी माँगते थे, दोनों स्टाफ 50 55  साल के रहे होंगे अऊ हम 5 के, पर हम उनको यार कहके बुलाते थे का है की बच्चे लोग बड़ो का कापी करते हैं न, रोज जरूर देखते थे किसका किसका चिट्ठी आया है अऊ बगल के गाओं में रहने वाले तिब्बती लोगो का चिट्ठी तो विदेश से आया रहता था उसमे इंटेरनेशनल टिकट लगा रहता था उसको उखाड़ लेते थे फिर स्कूल लेजाके दोस्त लोगो के बीच इंप्रेसन झाड़ते थे.. देखो मेरे पास अमेरिका का जर्मनी का तो लंदन का डाक टिकट है, उस टाइम का यही सब फॅन था..दीदी अऊ भैया तो एक बार शुकदेव के पईसा वाले डब्बा से 302  रुपये चुराये थे, दोनों आधा आधा बाटे थे हिसाब से दुनों पढ़ाई में तेज थे नलास्ट में पकड़ा भी गए दीदी तो कबूल ही नहीं रही थी फिर मम्मी बोली पुलिस आई है, खोज रही है चोर को, तब जाके डर से वो बतायी अऊ 138 रुपिया वापस भी की, बाकी का बिस्कुट खा डाली थी, हम तो  हमेशा एक दो एक दो रुपिया ही चुराते थे या फिर शुकदेव से माँग लेते थे, इसलिए कभी नही पकड़ाये..हम लोगो से पीछा छुड़ाने के लिए उस टाइम पे, हर सरकारी आफिस के लिए एक मेगज़ीन आता था समझ झरोखा नाम का अऊ चकमक भी आता था उसमे रंग बिरंगा चित्र भी रहता था, वो ही पकड़ा के शुकदेव भगा देता था कहता था ये देखो ये 3 रुपिया का है इसको पहले पढ़ के आओ...झरोखा की कहानी एकदम मस्त होती थी..धीरे धीरे हम लोग को इसका लत लग गया फिर तो रोज जा के शुकदेव से पुछते थे यार झरोखा आया है का...हमारा दोस्त दिलीप के बड़े पापा अम्बिकापुर के लाइब्रेरी में काम करते थे तो वो भी एक से एक किताब वहा से लेके आता था अब हम उसके फास्ट फ्रेंड थे तो हमको भी वो सबसे पहले देता था पढ़ने के लिए...

बचपन में पढ़ पढ़ के सुनाने का चलन भी खूब था, काहे की कई लोग को पढ़ने से ज्यादा मजा सुनने में आता था, कई लोग को पढ़ने भी नही आता था, अऊ काम काजी लोग काम करते करते सुन भी लेते थे, तो मल्टी टास्किंग कांसेप्ट अनजाने में अपलाई हो जाता था। अब हम तीनों भाई बहन का नंबर स्कूल में  ठीकठाक आता था तो हमी लोग दूसरो को मल्टी टास्क करवाते थे, यही बहाने चेक भी हो जाते थे अऊ तीनों में सबसे अच्छा पढ़ के सुनाने का एकदम सॉलिड  कंपिटिसन भी रहता था....अऊ तो अऊ फिलिम के सीन में भी उस टाइम पे जो सबसे हॉट हेरोइन रहती थी न वो  चश्मा लगा के झूला वाला कुर्सी मे लेटे हुये किताब मेगज़ीन या नावेल पढ़ते रहती थी टीना मुनीम को तो देखबों किए है वो टाइम पे वो ही यूथ के बीच खूब फ़ेमस थी... अब सभ्यता जो है न वो ऊपर से नीचे के तरफ समाज में फ्लो होता है तो फिल्मी मेगजीन क्रिकेट मेगज़ीन ये सब मौसी लोग भी खूब रखती थी  अऊ गर्मी छुट्टी के दोपहर में सब झन बैठ ताश खेलते थे तब एक झन मल्टी टास्क करवाते रहता था...


अब पारी आता है हमारे टापिक के सबसे दुर्लभ घटना का..पापा खुबे स्ट्रिक्ट थे, रोज सुब्बे सुब्बे 4 बजे हम तीनों भाई बहन को उठा के पढ़ने बैठा देते थे, ..अरे खूब नींद आता था वो टाइम पे, पर झपकी आए तो लातों खाते थे, अरे कई बार तो नींद आने पे साल स्वेटर खोल के बैठा देते थे हम लोग को, खूब ठंढा पड़ता है न मैनपाठ मे, पानियों डाल देते थे सोते हुये पकड़ा जायें तो..एक बार पापा अपने स्कूल से एक बोरा किताब लेके आए थे कहानी वाला, उसमे खूब रंगीन रंगीन चित्र भी बना था तो हम एक दिन दोपहर में वो वाला किताब निकाल के पापा के सामने बईठ के पढ़ने का नौटंकी करने लगे पापा देखे की उनके स्कूल का किताब छूए हैं तो आव देखे न ताव दो झापड़ लगा दिये हमको, अऊ किताब को अंदर रख दिये हमारा तो दिमाग घूम गया काहे की दांव उल्टा पड़ गया था, हम अच्छा बनने के कोशिश में दो झापड़ खा गए थे..लेकिन छोटे बच्चे को ढिबरी (दिया) छूने से रोकते हैं तो बार बार छूने जाता है वइसे से ही हमारे मन में क्यूरिओसिटी जग गयी, रोज दिन छुप छुप के किताब निकाल के दूर भाग जाते थे, कभी कोठार में कभी खेत साइड कभी मैदान साइड अऊ उसको पूरा खतम करके वापस चुपचाप रख देते थे, कभी किसी को पता न चले टाइप, काहे की अगर दीदी को पता चल जाता न तो रोज ब्लेक मेल करती, हम तीनों के मुह में एक डायलोग हमेशा रहता था रुक जा पापा को आने दे फिर देखना, फिर बदले में गलती गिनाना पड़ता था की तू बताएगी तो हमारे पास भी 3 ठे शिकायत रेडी है, तेरे को भी मार पड़ेगा, तब जाके नेगोसीएसन होता था तू ये मत बताना मै भी ये नहीं बताऊँगा टाइप, स्कूल का मारपीट, बदमाशी, स्कूल में काहे मार खा के आए है, ये सब घर पे नही बताना रहता था न, अब ऐसे में वो कभी पापा का किताब छूते देख लेती तब तो अऊ मौका मिल जाता उसको...                  
                 
                         



Monday, December 10, 2018

अकेला गया था मैं


दिवाली की छुट्टियाँ शुरू होने वाली थी शनिवार रविवार तो छुट्टी रहता ही है हम सोचे एक दिन रुक जाते हैं कुछ शॉपिंग वापिंग कर लेंगे उसके बाद रात मे घर निकल लेंगे पर शनिवार को उठते उठते 3 बज गया खूब तेज भूख भी लग रहा था पेट भी दर्द दे रहा था जल्दी से जाके नहा धुला लिए और खाना खाने चले गए खा पी के सीधे लोटस एलेक्टोनिक्स चले गए देखने की  दिवाली ऑफर में का मिल रहा है।  हम हमेशा यही दुकान प्रेफर करते हैं कई बार रेट अंदाजे हैं इन्हे सही रहता है सब जगह से, बहुत दिन से डीएसएलआर लेने का मन था तो जाके देखने लगे 3400 माडल देखने गए थे लेकिन दिखाने वाले के बात से इम्प्रेस होके डी 5600 माडल ले लिए उसके बाद ट्रेवेलिंग बैग देखने गए बैग हाउस एक मस्त सा बैग लिए, आज कल ट्रेवेलर बन गए हैं न ये बैग वइसे ही टाइप का था 10 15 गो पाकिट सबमे अलग अलग चैन लगा हुआ सब समान आ जाए टाइप, फिर खाना खाके घर चले गए अब जल्दी से नया नया समान लिए थे तो मन थोड़ा थोड़ा उचक रहा था दीदी भैया लोग को फोन करके बता दिये भैया तो सुन के हमारे मन से ज्यादा उचकने लगे बोले जल्दी ले के आओ देखते हैं का गज़ब है डीएसएलआर में हम लेकिन तुरत चेता दिये... दूंगा नही मै अपने पास ही रखूँगा...

रात में पैकिंग किए अब कल घर जाना था तो नींद नही आ रहा था अइसे भी रोज 3 3.30 होइए जाता है तो रात में पढ़ने के लिए किताब जरूर रखते हैं या फिर कोई सा मूवी या सिरियल सेलेक्ट कर के रखे रहते हैं अभी हाई स्कूल नाम का सिरियल चल रहा था कोरियन भाषा में है पर सब टाइटल से कम चल जाता है न 15 एपिसोड हो गया था बहुते मस्त है 15 वें एपिसोड के बाद व्हाट्सअप्प खोले एक दो झन जीएन बोल बाल दिये फिर देखे हमारी सहपाठी संध्या 2 मिनट पहले नया स्टेटस लगायी थी तो उसको फोन लगाये 12 15 दिन में लगा लेते हैं, उसको चिढ़ाते भी खूब हैं एक बार तो अपनी सबसे छोटी बहन लोग को उससे मिलाते टाइम हम बताये की ये लड़की 25वें क्लास् में पढ़ती है इसका किताब इतना भारी भारी है की 12 वीं के बाद हाइट कम होते जा रहा है सबसे छोटी वाली तो हमारा बात सही मान ली थी ...  कभी कभी अब घर जाना रहता है तो एक बार तो पुछना ही पड़ता है फार्मेल्टी के लिए  की वो कब जायेगी चले गयी रहती तो कहते बतायी नहीं अइसे ही चले गयी चार पाँच ठे डाइलाग तो पका पकाया रहता है हमारे पास की किस सिचुएसन में का बोलेंगे... वो भी घर कल ही जाने वाली थी हमारा प्लान ट्रेन से कोरबा तक जाने का था व्हा से धरमजयगढ़ फिर वहा तक घर से किसी को बुला लेंगे सोचे थे । पर संध्या बतायी सूबे 6 बजे ट्रेन है अनुपपुर तक फिर वहा से अम्बिकापुर के लिए तुरत मिल जाती है मेमु उसी में चले जाओ अइसे तो हमको अकेले यात्रा करना अच्छा लगता है अकेले में पूरी अपनी चोईस रहती है खुद के ख़याल में खोये रहो या फिर किसी अजनबी से बात करो.. बात चित का कोई दायरा नहीं विषय भी एकदम रेंडम कुछ भी हो सकता है बिना किसी प्लान का बस हमारे पास भी कुछ पाइंट्स होना चाहिए ट्रेन में जो हमसे बात करने वालो में थोड़ी रुचि हमसे बात करने में जगा सके सो तो हाइए है काहे की हम फेक्ट्स जोड़ जाड़ के फेकने में माहिर हैं....तो संध्या के साथ जाने का मन तो नहीं था पर फिर भी हम बोले उसको व्यवहार के नाम से चलो तुम भी साथ में सूरज पुर उतर जाना देखे की सुब्बे सुब्बे उसका ट्रेन पकड़ पाना पोसिबल नहीं है तो और ज़ोर लगाने लगे तुम बोलो तो मै लेने आ जाऊँगा ये टाइप का फिर जीएन बोल के सोने की कोशिश करने लगे




सुब्बे जल्दी उठे सेव रखे थे उसको बैग में डाल के निकल गए पैदल स्टेसन के तरफ 3 केएम है हमारे रूम से 10 मिनट पहले पहुच के बिस्किट नमकीन सब भी रख लिए बैग में फिर एक सीट पकड़ के बईठ गए सामने एक अंकल बैठे थे पेपर पढ़ रहे थे उनसे हम पेपर लेके पढ़ने लगे अब कैसे भी टाइम पास तो करना ही था ट्रेन चलने लगी चना वाला आया उससे चना लिए बढ़िया से नींबू डालने को बोले खा के फिर पेपर पढ़ने लगे सुब्बे थोड़ा थोड़ा ठंढ था सामने वाले अंकल को खूब खासी आ रही थी हमको भी बेकार लग रहा था गुस्सा वाला बेकार सामने सामने खास रहे थे ये नाम से अब बार बार खास रहे थे और हमको दिक्कत हो रहा था तो हम एक चाय वाले को बुलाये और एक चाय अंकल को देने को बोले हम भी एक चाय ले लिए और पीने लगे अब धीरे धीरे हम दोनों के बीच बात चीत का सिलसिला शुरू हो गया पेपर में छपे खबर के बारे में हम दोनों डिस्कस करने लगे बात बात में पता चला की वो रांची में एक कालेज में प्रोफेसर हैं हमारा तो दिमाग चकरा गया काहे की जिसको हम सामान्य सा  देहाती समझ रहे थे वो तो जनरल डिब्बा में ट्रेवल करते हुये एक प्रोफेसर निकला..गज़ब अब हमको उनकी बातों में इंटरेस्ट आने लग गया हम उनसे उन्ही के बारे में पुछने लगे वो अनुपपुर के आगे छोटा सा स्टेसन है हरद वहीं के रहने वाले उनकी पढ़ायी चिरमिरी के लाहीड़ी कालेज में हुआ था वो बता रहे थे उस समय कैसे कैसे दिक्कत होता था ट्रेन से ही चिरमिरी तक जाना आना करते थे सेनिएर लोग बोले थे ट्रेन में पैसा मत देना सो टी टी से शुरू शुरू में बच बच के निकल जाते थे धीरे धीरे तो पहचान इतना हो गया की टी टी को कमाते देखते थे तो उसी के पैसा से नाश्ता करते थे कह कह के की चाचा खिलाइए कुछ न कुछ आज तो आपको कमाते देखे हैं... नौकरी लगने के बाद जब टी टी से मिले थे और उसको खुद के पईसा से मिठाई खिलाये थे तो वो टी टी रोने लग गया था ..उनकी बातों में हल्का हल्का नशा था हम दोनों सुनाने और सुनने में रम गए थे हमको भी मस्त लग रहा था बिसरी हुयी यादों में डबडबाइ आंखों को और रुँधे गले को हम महसूस कर रहे थे वो कह रहे थे की जब ग्रेजुएसन का रिजल्ट लेने गए थे तो प्रिंसिपल सर तीन लोग का रिजल्ट रोक लिए थे उनका उनके दोस्त चपन और एगो लड़की महामाया भट्टाचार्य  ए तीनों डरा गए की का गलती हो गया है जब कालेज का बाबू बोला तुम लोग को प्रिंसिपल सर बुलाये हैं वो रिजल्ट देंगे उस टाइम पे टीचर का डर  और सम्मान दोनों खूब होता था न जब ये लोग गए तो सर खुदे रसगुला खिलाये और बताये तुम तीनों फ़र्स्ट क्लास पास हुये हो और पुछे का करोगे तीनों तो वो सब बोले नौकरी करेंगे तब सर बोले तब तो मै रिजल्ट नहीं दूंगा फिर वो आगे पढ़ने को बोले सागर विश्वविद्यालय में मुखर्जी बाबू को फोन करके तीनों का व्यवस्था भी जमा दिये उस टाइम पे घर से बाहर जाना बहुते बड़ी बात थी जाके एडमिसन कराये फिर वापस आ गए मुखर्जी बाबू फिर तार करके बुलाये तब जाके फिर पढ़ायी शुरू हुआ..वो बताये की रजनीश उस समय सागर में ही साइकोलोजी के प्रोफेसर थे हमारा तो एकसाइटमेंट बढ़ गया काहे की हम रजनीश के बारे में पढ़े है की कैसे वो सिर्फ ढाई साल में अमेरिका में महानगर रजनीश पुरंम बसा दिये थे उनके काफ़िले में हजारो के तादाद लकजरी कार  चलती थी और यहाँ तक की अमेरिका के प्रेसिडेंट को डर हो गया था की ये वहाँ का प्रेसिडेंट न बन जाए नेक्स्ट एलेक्सन में तो हम रजनीश के बारे में पुछने लगे की सागर में वो कैसे थे व्यवहार सब में और कइसे वो ओशो बन गए वो बताये की सब उनको पागल पागल कहते थे क्यूकी उनकी बातें अजीब होती थी अब 80 के दशक में कोई आदमी इतना खुले विचारो का होगा जीतना आज का आदमी पूरी तरह नहीं हुआ है तो विरोध तो होगा ही और लोग पागल ही समझेंगे वास्तव में विचारो के लिए देश काल और परिस्थितियाँ बहुत मायने रखती हैं अब कश्मीर में खिलने वाला फूल कन्याकुमारी मे तो संघर्ष ही करेगा न विचारों के लिए प्लैटफ़ार्म बहुत मैटर करता है अगर सही बात गलत जगह पे बोलेंगे तो आप गलत ही कहलाएंगे...





बात बात में ही हमलोग अनुपपुर पहुच गए वहा पता चला रविवार को गाड़ी अम्बिकापुर के लिए दोपहर में नही रहती है हम फिर से संध्या को फोन लगा के बोले तुम तो ठग दी हमको आज कोई ट्रेन नही है उसको तीन दिन तक अफ़सोस हुआ था पर उसको का पता जितनी अनिश्चितता रहेगी यात्रा में उतना ही यात्रा रोचक होगा ...उसके बाद स्कूल का एक जूनियर विनय गुप्ता भेटा गया उससे आधा घंटा बात किए बहोत दिन बाद मिला था हम दोनों एकके हास्टल में थे वो बिलासपुर जा रहा था..

फिर हम मनेद्रगढ़ तक ट्रेन पकड़ने का सोचे और एक घंटे बाद बैठ गए ट्रेन में बोर्री डाँड में बड़ा भी खाये गरम बड़ा बोल के ठंढा बड़ा खिला दिया वो वेंडर दु गो गाली मने मन बक दिये उसी टाइम फिर मनेंद्रगढ़ पहुच के बस स्टैंड गए वहा हमको एक लड़का दिखा उसको खूब याद करने का कोशिश किए की ये कोन है फिर उसी से जाके पुछे यार मै तेरे को जानता हू क्या हम दोनों मिल के याद करने लगे मै पूछ नवोदय के हो क्या या जी इ सी में पढ़े हो फिर याद आया हम दोनों दो साल पहले पड़ोसी थे फिर दोनों बस में अगल बगल बईठ गए उसको पैसा देके मै बोला जा खाने पीने का समान ले आ जो खाना हो कुरकुरे बिस्किट सब लेके आया फिर हम दोनों पुराने मकान मालिक का मिल के आधा घंटा निंदा किए यासीन नाम था उसका भइयाथान  में घर है अब एकके तरफ के थे इस लिए पहले भी खूब बात होता था उससे वो हमको बताया नेट फ्लिक्स का विडियो कहा से डाउन लोड होता है दो तीन ठे लिंक भी दिया वो बैकुंठ पुर ही उतर गया हमको तो अम्बिकापुर जाना था

धीरे धीरे शाम होने लगी हल्का हल्का ठंढ भी लग रहा था ये जो यात्रा के टाइम शाम को हल्की हल्की सिहरन वाली जो ठंढ है न हमारे लिए गज़ब की फीलिंग है काहे की जब स्कूल टाइम पे हास्टल से छुट्टियों में  घर जाते टाइम अइसा ही ठंढ लगता था घर जाने की खुशी और सिहरन ये हमारे लिए समोसे के साथ चटनी जैसा काम करती है अम्बिकापुर में हमारा भाई कालू इंतज़ार कर रहा था वो बाइक में आया था जैसे पहुचे वो लेने आ गया अंधेरा हो चुका था दोनों निकल लिए हमको भूख लग रही थी दोनों जाके समोसा खाये मिश्रा जी के यहा खरसिया नाका के पास फिर आगे बढ़ गए आगे ठंढ और बढ़ गयी थी पहाड़ी रास्ते का सफर जो था ऊपर से दूर दूर इक्का दुक्का घर में लाइट जो जल रहा था दिख रहा था अब हम देस्टिनेसन पे पहुचने वाले थे ......     

Tuesday, December 4, 2018

बादलो की दौड़


जब छोटे थे जूनियर क्लास में थे तब खुबे बादलो का दौड़ देखें हैं, ये वो जमाना था जब मम्मी लोग बच्चे को डराने के लिए भूत बघवा अउ   ओंड़का ये सब से डर दिखाती थी, वो टाइम पे जंगल खूब होता था न, बच्चे लोग घूमने के लिए या फिर खेलते खेलते जंगल साइड भाग जाते थे, अब दाई दाउ को फिकर तो लगे रहता है न ये ही नाम से डराते थे ।

ओंड़का का वो टाइम पे खुबे क्रेज था,वो बच्चा पकड़ पकड़ के बोरा मे भर भर  के ले जाता था अउ जंहा जंहा बांध  पुलिया या नया बिल्डिंग बनते रहता था वहा पे बलि  चढ़ाता था, एकदम संघर्ष फिलिम टाइप जइसे उसमे आशुतोष राणा बच्चा उठा के ले जाता था वइसे ही, दोस्त यार भी सब खेलते खेलते थक जाते थे तो बईठ के भूत प्रेत, एक्सिडेंट, फिलिम का स्टोरी अउ  ओंड़का का स्टोरी खुबे सुनते सुनाते रहते थे अरे बड़ी मज़ा आता था सुनने मे, अउ रात रात को डरो लगता था । कुछ दिख मत जाये ये नाम से रात में अकेले अगर बाहर निकल भी गए एमेर्जेंसी में,  तो आँख मूँद के कूद जाते थे जो होगा सो देखा  जायेगा बंद आँख से ही ....।

अब हमारा  घर पहाड़ी इलाक़े में हैं तो विंटर में पहले खुबे ठंढा पड़ता था दिन भर धूप सिकाने का मन करते रहता था, स्कूल में क्लास भी क्लास रूम से बाहर धूप में लगता था बड़ी मज़ा आता था बाहर धूप में बईठ के पढ़ने में आते जाते सब आदमी दिखते रहते थे, नया नया मैटर ज्यादे मिलता था बतियाने के लिए।  पेड़ के नीचे तो कोई बैठना ही नही चाहता था ।




हम लोग में जब आपसे में झगड़ा होता था न वो एकदम अलगे टाइप होता था मुहे मुह में, ज्यादा गाली गलोच नही होता था, वो टाइम गाली बकने वालो को एकदम गंदे समझा जाता था अउ बहुते बड़ी बात थी गाली बकना, लड़ाई में  एक झन कहता था
रुकजा शाम में मै अपने भैया को बुला लाऊँगा तो
दूसरा कहे मै अपने चाचा को ले आऊँगा
पहला मै पापा को लाऊँगा
दूसरा मै दादा को ले आऊँगा,
मै मिथुन को ले आऊँगा वो बड़ी मार मारता है
तो  मै धर्मेंदर को ले आऊँगा वो अउरे ज्यादा मारता है
तो मै शंकर जी को ले आऊँगा
तो मै हनुमान जी को ले आऊँगा,
दो झन के बीच में बाकी सब लोग स्टेंडिंग कमेटी टाइप सुनते रहते थे अउ बीच बीच में साइटेसन दिये हुये इंटीटी के पावर को अनालाइज कर कर के बताते रहते थे की कोन ज्यादा भारी पड़ रहा है, बीच बीच में नजर मेडम लोग तरफ भी मार लेते थे, जो गपियाते हुये स्वेटर बुनते रहती थी अपने लईका को बड़े क्लास की लड़कियो को पकड़ा के, कि मेडम कही आ तो नही रही वरना सेल्फ स्टडि के टाइम पे लड़ते झगड़ते पकड़ा जायें तो खूब मारो पड़ेगा ।

अइसे दिनो में स्कूल बंक करना बहुते बड़ी और दोस्तो के बीच मे सम्मान कि बात होती थी काहे कि कइसे  भी अगर घर में पता चल गया न, कि स्कूल से भागे थे तो गजबे मार पड़ता था, वो टाइम में अगर तबीयत खराब रहे और कोई कह दे स्कूल मत जाना तो बीमारी में भी मने मन लड्डू फूटने लगता था।  अइसा दिन का खूब इंतजार रहता था जब तबीयत खराब हो अउ स्कूल ना जायें अइसे दिन में किताब निकाल के बईठ जाते थे धूप मे, खाना भी धूपे में खाते थे बीच बीच में लेट के हल्का सा आँख मूँदे मूँदे आसमान के तरफ देखते रहते थे नीला नीला आसमान जिसमे सफ़ेद सफ़ेद बादल पूरब पश्चिम- पश्चिम पूरब होते रहता था। शायद इसी लिए ब्लू और व्हाइट फेवरेट कलर है हमारा, कोई बड़ा बादल कोई छोटा बादल कोई भेड़ टाइप तो कोई भालू टाइप कोई एकदम स्लो तो कोई फास्ट, मने मन एक दूरी तय हो जाता था आसमान में, देखें उस दूरी तक कोन सा बादल पहले पहुचेगा, बीच बीच में धूप तेज लगती थी तो जगह बदल  के दूसरे जगह लेट  के कंपिटिसन में पूरी नज़र बनायें रखते थे।  हमारा मन और विचार भी बादलो के बीच फ्री फ्लो उड़ते रहता था, खुद में क्वेरी करते रहते थे ये सब बादल कहा से आ रहे होंगे का जाने बादल में भी कोई रहता होगा उस टाइम पे परी अउ भगवान वाला सिरियल खुबे चलता था न और भगवान सब आसमान से ही उतरते थे उसमे। अरे सनडे को तो लाइट गोल न हो जाये ये नाम से अगरबत्ती भी जला देते थे गज़ब का क्रेज था चन्द्रकान्ता अलिफ लैला कृष्णा रामायण ये सब का अइसा लगता था बादल के ऊपर परी लोग होंगे और उसके भी ऊपर भगवान लोग वो लोग पता नही अपने दुनिया मे क्या क्या काम करते होंगे ।





कभी कही बीच बीच मे चील कोई दूसरी चिड़िया या हवाई जहाज दिखाई देता था तो उसको हमारा नज़र पूरा ओझल होने तक खोज खोज के पीछा करती थी हल्का हल्का आँख मूँदे रहने से आसमान मे रेशा रेशा टाइप भी कुछ दिखता था समझ मे नही आता था का चीज़ है? हमको तो कई बार लगा की का पता आक्सीजन नाइट्रोजन दिख रहा होगा अब लेकिन लग रहा है खुदे  का, आधा खुला आँख का पलक दिखायी देता रहा होगा ये बादलो के दौड़ का मज़ा किसी को कभी नही बताये हैं आज पहली बार यूँ ही ....

छतीसगढ़ का चित्रकूट है बगीचा |

चित्रकूट एक प्रसिद्ध धार्मिक पर्यटन क्षेत्र है। चित्रकूट का नाम आते ही याद आता है भगवान श्री राम अपने अनुज व पत्नी संग वनवास के कई वर्ष...